दिल्ली चुनाव में कांग्रेस को साथ न लेकर आम आदमी पार्टी ने क्या भूल कर दी है? । Opinion
मंगलवार को चुनाव आयोग द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही, जिसमें मतदान 5 फरवरी को और नतीजे 8 फरवरी को आएंगे. यह कहना लगभग सही ही होगा कि यह आम आदमी पार्टी (आप), भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के बीच एक और हाई-स्टेक्स राजनीतिक लड़ाई है. हालांकि, जो बात प्रमुखता से सामने आती है वह यह है कि इन चुनावों में सबसे अधिक दांव आम आदमी पार्टी के लिए है, भाजपा के लिए थोड़ा कम और कांग्रेस के लिए सबसे कम. यानि कि कांग्रेस पार्टी बस वोटकटवा बनकर रह जाएगी. यानी कि कहीं वह बीजेपी के वोट काटती दिखेगी तो कहीं आम आदमी पार्टी की. अतंत: नुकसान किसका होगा. क्या आम आदमी पार्टी ने जिन तर्कों के आधार पर कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ने से इनकार किया था वो सही साबित हो रहे हैं?
दिल्ली में 1998 से 2013 तक 15 साल तक कांग्रेस का शासन रहा. 2013 के चुनाव में भी वह तीसरी बड़ी ताक़त (आठ सीटें) थी और त्रिशंकु विधानसभा के चलते आम आदमी पार्टी (28 सीटें) को उससे हाथ मिलाकर सरकार बनानी पड़ी. लेकिन उसके बाद से कांग्रेस दिल्ली में एक भी विधायक नहीं बना सकी. कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिर कर 4.26% हो गया, जो कि 2015 में 10% से भी कम हो गया. पर आश्चर्यजनक बात यह है कि दिल्ली के किसी भी शख्स से चाहे वो मर्सीडीज से चलता हो या गली नुक्कड़ पर चाय और सिगरेट की रेहड़ी लगाने वाला हो उसे लगता है कि दिल्ली में विकास की असली गंगा तो शीला दीक्षित की सरकार में ही बही.
शायद शीला की लोकप्रियता को देखते हुए ही दिल्ली में कांग्रेस के चुनावी प्रचार का नेतृत्व संदीप दीक्षित कर रहे हैं. पर सवाल यह भी उठता है कि क्या संदीप दीक्षित को कमान थमाने से कांग्रेस के प्रदर्शन में कुछ सुधार हो सकता है. दरअसल राजनीति में लोकप्रियता हासिल करना और उन्हें वोट में बदलना दोनों अलग-अलग चीजें हैं. यह वैसे ही कोई ब्रैंड बहुत पॉपुलर है पर उसके आउटलेट ही नहीं हैं. यहां कोई फिल्म बहुत अच्छी है पर उसे थियेटर ही बहुत कम मिले. कांग्रेस के साथ दिल्ली में यही प्रॉब्लम है. जाहिर है कि इस तरह कांग्रेस इस चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रही है पर सफलता की गुंजाइश बहुत कम दिख रही है.